गुजरात हाईकोर्ट ने माना है कि किसी व्यक्ति के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने का मतलब यह नहीं है कि वह सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए एक खतरा है। जस्टिस एसएच वोरा ने कहा, “जब तक कि ऐसी कोई सामग्री न हो जिनसे यह मामला बनाया जा सके कि कोई व्यक्ति समाज के लिए खतरा है और समाज के लिए एक खतरा बन जाएगा और वह सभी सामाजिक तंत्र को खराब कर देगा। तब तक इस तरह के व्यक्ति के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसे गुजरात प्रिवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटीज एक्ट की धारा 2 (सी) के अंतर्गत नज़रबंद किया जा सकेगा।” उक्त अधिनियम की धारा 3 (2) राज्य के अधिकारियों को ऐसे व्यक्तियों को हिरासत में लेने की शक्तियां प्रदान करती है, जिनकी गतिविधियां सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए हानिकारक है। इस मामले में याचिकाकर्ता के खिलाफ आईपीसी की धारा 379 (ए) (3), 114, आदि के तहत दायर आपराधिक मामलों में उसकी गतिविधियों के संबंध में अधिनियम के तहत हिरासत में लिया गया था। याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि किसी भी गैरकानूनी गतिविधि करने की संभावना या कथित रूप से किए जाने की संभावना को सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने के प्रभाव से नहीं जोड़ा जा सकता। अधिक से अधिक इसे कानून और व्यवस्था का उल्लंघन कहा जा सकता है। उसने आगे कहा कि रिकॉर्ड पर ऐसे कोई स्पष्ट सामग्री नहीं है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि कथित असामाजिक गतिविधियों के कारण सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचा हो। इन सबमिशन के बाद कोर्ट ने कहा कि जब तक कि ऐसी कोई सामग्री न हो जिनसे यह मामला बनाया जा सके कि कोई व्यक्ति समाज के लिए खतरा है और समाज के लिए एक खतरा बन जाएगा और वह सभी सामाजिक तंत्र को खराब कर देगा। तब तक इस तरह के व्यक्ति के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि उसे गुजरात प्रिवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटीज एक्ट की धारा 2 (सी) के अंतर्गत नज़रबंद किया जा सकेगा। अदालत ने कहा, “अधिकारी की व्यक्तिपरक संतुष्टि को कानूनी रूप से वैध और कानून के अनुसार नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि एफआईआर में उल्लेखित कथित अपराधों का सार्वजनिक व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता जैसा कि अधिनियम और अन्य प्रासंगिक कानून के तहत आवश्यक है। दंडात्मक कानून इस स्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त हैं। सिर्फ एफआईआर दर्ज होने से उसे सार्वजनिक व्यवस्था के उल्लंघन से नहीं जोड़ा सकता और अधिकारी अधिनियम के तहत पुनरावृत्ति नहीं कर सकता है और अधिनियम की धारा 3 (2) के तहत मामला बनाने के लिए कोई प्रासंगिक और गंभीर सामग्री मौजूद नहीं है। ” इस प्रकार अदालत ने राज्य को निर्देश दिया गया कि यदि किसी अन्य मामले में आवश्यक नहीं हो तो वह याचिकाकर्ता को रिहा करे।