पटना हाईकोर्ट ने पटना स्थित न्यायिक अकादमी के निदेशक से कहा है कि वह कस्टडी और रिमांड को लेकर दायर होने वाले आवेदनों के मामलों में न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षित करें। सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए एक मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आकस्मिक रिमांड आदेश को देखने के बाद मुख्य न्यायाधीश संजय करोल और न्यायमूर्ति अनिल कुमार उपाध्याय की पीठ ने एक रिट याचिका पर सुनवाई के बाद यह आदेश पारित किया है। अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य और अन्य, (2014) 8 एससीसी 273 मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित कानून के अनुसार, किसी आरोपी को हिरासत में भेजने से पहले एक मजिस्ट्रेट, आरोपी की हिरासत को अधिकृत करते समय, हिरासत दिए जाने की आवश्यकता के संबंध में अपनी संतुष्टि दर्ज करने के लिए बाध्य होता है। हालांकि वर्तमान मामले में मजिस्ट्रेट ने गिरफ्तारी की आवश्यकता के संबंध में खुद को संतुष्ट किए बिना, याचिकाकर्ता को हिरासत में रखने के लिए रिमांड पर भेज दिया था। वास्तव में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा हिरासत के लिए बनाए गए नियमों या शर्तो या सुरक्षा उपायों की धज्जियां उड़ाते हुए, रिमांड आदेशों को लगभग तीन महीने के लिए सामान्यता से या नियमित रूप से पारित कर दिया गया था। पीठ ने कहा कि- ”अर्नेश कुमार (सुप्रा) मामले में शीर्ष अदालत ने कहा था कि संतुष्टि को दर्ज करना महज एक औपचारिकता नहीं है। हमें न्यायिक अधिकारियों के नियमित आदेश पारित करने के तरीके से झटका लगा है… इन आदेशों में सिर्फ कानाफूसी है कि अभियुक्त को हिरासत में लिया गया या जेल भेजा गया है, संतुष्टि बहुत कम दर्ज की गई है।” अदालत ने कहा कि उपरोक्त आदेश बिना दिमाग लगाए पारित कर दिए गए थे और इस तरह, हिरासत में रखने के यह आदेश अवैध थे और याचिकाकर्ता को जल्द ही रिहा किया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी निर्देश दिया कि न्यायिक अधिकारियों को इस पहलू पर विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसी परिस्थितियों से बचा जा सके। इस प्रकार अदालत ने निम्न निर्देश दिए- ”हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि उस समय, याचिकाकर्ता की नजरबंदी या हिरासत पूरी तरह से अवैध थी और इस तरह की रिट याचिका को अनुमति देने की आवश्यकता है, इसलिए हम याचिकाकर्ता कुंदन कुमार की रिहा करने का निर्देश देते हैं..। इस न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को निर्देश दिया जाता है कि वह इस आदेश के बारे में निदेशक, न्यायिक अकादमी, बिहार, पटना को अवगत कराएं ताकि वह न्यायिक अधिकारियों को प्रशिक्षण प्रदान कर सकें कि कैसे अधिकारियों को रिमांड के आवेदनों से निपटना चाहिए।” जिस तरह से संबंधित मजिस्ट्रेट ने याचिकाकर्ता के मामले को निपटाया, उसकी आलोचना करते हुए अदालत ने कहा कि- ”न्यायिक अधिकारी केवल डाक अधिकारी नहीं होते हैं, उनके लिए रिकॉर्ड की जांच करना अनिवार्य रूप से आवश्यक होता है, इसके बाद अभियुक्तों को हिरासत में रखने और हिरासत में रखने की जरूरत और आवश्यकता के संबंध में अपनी संतुष्टि दर्ज करते हैं। यह अफसोसनाक है, जैसा कि स्पष्ट है इस मामले में कभी भी ऐसा नहीं किया गया था। रिमांड के लिए आरोपी-रिट याचिकाकर्ता के मामले की फाइल को न्यायिक अधिकारी (एस) ने 17.11.2019 से 04.01.2020 तक बहुत ही आकस्मिक और असावधान तरीके से निपटाया था।