इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि हिंदू विवाह अनुबंध नहीं है जिसे सहमति से भंग किया जा सके। कानूनी प्रक्रिया के तहत ही सीमित आधारों पर हिंदू विवाह भंग या समाप्त किया जा सकता है। कोर्ट ने कहा यदि दोनों में से किसी पर नपुंसकता का आरोप है तो अदालत साक्ष्य लेकर विवाह को शून्य घोषित कर सकती थी किन्तु इस मामले में निचली अदालत ने इसकी उपेक्षा की।
यह आदेश जस्टिस एस डी सिंह और जस्टिस डोनादी रमेश की खंडपीठ ने एक महिला (पिंकी) की अपील को स्वीकार करते हुए दिया है। अपील पर अधिवक्ता महेश शर्मा ने बहस की। मालूम हो कि अपील कर्ता की शादी पुष्पेंद्र कुमार के साथ 2 फरवरी 2006 में हुई। पुष्पेंद्र सेना में थे। पेट में बच्चा था तो पत्नी 31 दिसंबर 2007 को अपने मायके आ गई। इसके बाद पति ने 11 फरवरी 2008 को विवाह विच्छेद का वाद दायर किया।
बच्चा पैदा होने के बाद बदली स्थिति
पत्नी ने भी सहमति जताई कहा पति की पाबंदी के साथ वो नहीं रहना चाहती। केस अदालत में लंबित रहा। मध्यस्थता का प्रयास सफल नहीं हुआ। इसी बीच एक और बच्चा पैदा हुआ तो पत्नी ने यह कहते हुए विवाह विच्छेद की सहमति वापस ले ली कि साबित हो गया कि वह बच्चा पैदा कर सकती है। इसके लेकर उसने कोर्ट में दूसरा जवाब दाखिल किया। पति ने दूसरे जवाब पर आपत्ति की। जिसकी सुनवाई की तिथि भी तय हो गई थी, लेकिन अदालत ने विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर दी। इसके बाद महिला की ओर से अदालत के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी।
‘दूसरे बयान पर अधालत ने विचार नहीं किया’
हाई कोर्ट ने कहा कि विपक्षी विवाह विच्छेद के आधार साबित नहीं कर सका है। परिस्थितियां बदलीं पत्नी ने दाखिल पहले जवाब का समर्थन न कर दूसरा जवाब दाखिल किया। जिस पर अदालत ने विचार नहीं किया। जिस समय सहमति से अदालत ने विवाह विच्छेद का आदेश दिया, पत्नी की सहमति मौजूद नहीं थी। ऐसे में सहमति पर विवाह भंग नहीं किया जा सकता था। निचली अदालत को पक्षकार को अपने मूल बयान पर कायम रहने के लिए बाध्य करने का अधिकार नहीं है। अदालत ने गलती की है।
निचली अदालत ने डिक्री पारित कर गलती की
कोर्ट ने कहा विवाह विच्छेद वाद दायर होने के बाद 3 साल केस लंबित रहा। पत्नी ने अपने पहले बयान में विवाह विच्छेद पर सहमति जताई। इसके बाद मिडिएशन विफल होने और दूसरा बच्चा पैदा होने से परिस्थितियों में बदलाव के कारण पत्नी ने दूसरा लिखित बयान दाखिल कर विवाह विच्छेद की सहमति वापस ले ली। अदालत को पति की आपत्ति व जवाब सुनकर गुण-दोष पर वाद तय करना चाहिए था। अदालत ने पत्नी के दूसरे लिखित बयान पर पति की आपत्ति की सुनवाई की तिथि तय की और विवाह विच्छेद की डिक्री पारित कर गलती की है।
फिर से आदेश पारित करने का निर्देश
हाई कोर्ट ने अपर जिला जज बुलंदशहर के 30 मार्च 2011 के आदेश और विवाह विच्छेद की डिक्री रद्द कर दी है। इसके साथ अधीनस्थ अदालत को शादी बरकरार रखने का मिडिएशन विफल होने की दशा में नियमानुसार नए सिरे से पत्नी के दूसरे जवाब पर पति का जवाब लेकर आदेश पारित करने का निर्देश दिया है।