बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर पीठ ने 5 अप्रैल को अपने फैसले में अरुण गवली को राहत देते हुए राज्य सरकार से गवली की समय से पहले रिहाई पर विचार करने को कहा था। हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार की साल 2006 की रिहाई नीति के आधार पर यह आदेश दिया था, जिसके तहत स्वास्थ्य के आधार पर और उम्र के आधार पर दोषी को समय से पहले रिहा करने का प्रावधान था। हालांकि साल 2015 में नई रिहाई नीति लागू कर दी गई, जिसके तहत रिहाई की न्यूनतम सजा अवधि 40 साल कर दी गई है।
महाराष्ट्र सरकार ने किया रिहाई का विरोध
महाराष्ट्र सरकार के वकील राजा ठाकरे ने गवली की रिहाई का विरोध करते हुए कहा कि गवली के खिलाफ 46 मामले दर्ज हैं, जिनमें से 10 मामले हत्या से जुड़े हैं। ठाकरे ने बताया कि गैंगस्टर बीते 17 वर्षों से जेल में बंद है और नई रिहाई नीति के तहत 40 साल से कम समय की सजा काटने से पहले रिहाई नहीं दी जा सकती। गवली की वकील नित्या रामाकृष्णन ने सुनवाई के दौरान कहा कि राज्य सरकार ने साल 2015 में अपनी रिहाई नीति में बदलाव किया है, लेकिन जब अरुण गवली को साल 2009 में सजा नहीं हुई थी, तब तक नई नीति लागू नहीं हुई थी। ऐसे में पुरानी नीति के तहत उम्र और कमजोरी के आधार पर गवली को रिहाई मिलनी चाहिए।
वकील ने बताया कि गवली दिल और फेफड़ों की बीमारियों से जूझ रहा है। इस पर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने गवली की वकील से कहा कि आपको पता होना चाहिए कि हर कोई अरुण गवली नहीं होता है। शोले फिल्म में एक मशहूर डायलॉग है, जिसमें कहा जाता है कि ‘सो जा बेटा नहीं तो गब्बर आ जाएगा’, ऐसा ही कुछ मामला यहां भी है। दलीलें सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने गवली की रिहाई पर रोक के अपने अंतरिम फैसले को बरकरार रखा।
गवली को शिवसेना नेता की हत्या में हुई थी उम्रकैद की सजा
गवली को साल 2007 में शिवसेना (अविभाजित) के कॉरपोरेटर कमलाकर जमसंदेकर की हत्या का दोषी पाया गया था। गवली मुंबई के दगड़ी चाल का एक जाना पहचाना नाम है और वह साल 2004 से 2009 तक मुंबई की चिंचपोकली सीट से विधायक भी रहा था। साल 2006 में गवली को गिरफ्तार किया गया था और साल 2012 में मुंबई के सत्र न्यायालय ने गवली को शिवसेना के कॉरपोरेटर की हत्या का दोषी मानते हुए उम्रकैद की सजा सुनाई थी और साथ ही 17 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया था।