इलाहाबाद हाई कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकार से भाट समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग में दाखिल जनहित याचिका पर जवाब मांगा है। यह आदेश न्यायमूर्ति मनोज कुमार गुप्ता एवं न्यायमूर्ति मनीष निगम की खंडपीठ ने उत्तर प्रदेश राज्य अखिल भारतीय भाट समाज एकता और उसके अध्यक्ष पवनेंद्र कुमार की जनहित याचिका पर अधिवक्ता घनश्याम मौर्य को सुनकर दिया है। जनहित याचिका में कहा गया है कि भाट समुदाय को डी अधिसूचित जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकार को सार्वजनिक रोजगार में भाट समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में आरक्षण प्रदान करने का निर्देश दिया जाए।
जनहित याचिका में कहा गया है कि राज्य के कुछ जिलों में बसी विमुक्त जनजाति भाट समुदाय को एक मई 1961 के शासनादेश द्वारा विशेष दर्जा दिया गया था। यह दर्जा शिक्षा, शैक्षणिक और सामाजिक कल्याण योजनाओं के प्रयोजनों के लिए था। भारत के विभिन्न राज्यों में सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण के लिए विमुक्त जनजातियों को अनुसूचित जनजाति माना जाना चाहिए। याचिका में कहा गया कि उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में व्यवस्थित जीवन जीने और राज्य की सामाजिक कल्याण योजनाओं से लाभान्वित होने के बावजूद उन्हें सार्वजनिक रोजगार और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण नहीं दिया गया है, जिसके वे हकदार हैं।
जनहित याचिका में आगे कहा गया है कि जून 2013 में राज्य सरकार ने सभी डीएम और कमिश्नर को एक आदेश जारी किया, जिसमें जाति प्रमाण पत्र के लिए पात्र विमुक्त जनजातियों को विमुक्त जनजाति के रूप में सूचीबद्ध किया गया था। कहा गया है कि अन्य विमुक्त जनजातियां बंजारा, भर, गांडीला, मल्लाह, केवट, मेवाती, नट, गूजर, गोंड, भोटिया, बुक्सा, जनसारी आदि को ओबीसी, अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत रखा गया है। इन्हें यूपी के विभिन्न जिलों में ओबीसी, अनुसूचित जनजातियों के तौर पर सार्वजनिक रोजगार और शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिल रहा है। लेकिन भाट समुदाय को उपरोक्त लाभ से वंचित किया गया है जो भेदभाव और कानून का उल्लंघन है।