सुप्रीम कोर्ट में एक अनोखा मामला सामने आया है। केरल की रहने वाली सफिया पीएम नाम की एक मुस्लिम महिला ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर एक अहम सवाल खड़ा किया है। उन्होंने खुद को ‘गैर-आस्तिक’ बताते हुए मांग की है कि उनके उत्तराधिकार से जुड़े मामलों में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरिया कानून) की बजाय भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 लागू किया जाए। इसपर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से चार हफ्ते में जवाब मांगा है।
सफिया पीएम की एक बेटी है और वह अपनी पूरी संपत्ति उसे देना चाहती हैं। लेकिन शरिया कानून के तहत वह अपनी कुल संपत्ति का केवल 50 प्रतिशत ही बेटी को दे सकती हैं। ऐसे में उन्होंने अदालत से अपील की है कि उन्हें धर्मनिरपेक्ष उत्तराधिकार कानून के तहत संपत्ति देने की अनुमति दी जाए।
चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया (सीजेआई) संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने इस मामले में केंद्र सरकार को चार हफ्ते में जवाब दाखिल करने का निर्देश दिया है। इस मामले की अगली सुनवाई मई के पहले हफ्ते में होगी।
शरिया कानून के अनुसार कोई मुस्लिम व्यक्ति अपनी संपत्ति का केवल एक-तिहाई हिस्सा वसीयत के माध्यम से दे सकता है। बाकी संपत्ति उसके कानूनी उत्तराधिकारियों में बांटी जाती है। यदि कोई व्यक्ति इस्लाम छोड़ देता है तो उसे विरासत का अधिकार नहीं मिलता। सफिया पीएम के पिता एक नॉन-प्रैक्टिसिंग मुस्लिम हैं लेकिन उन्होंने आधिकारिक तौर पर इस्लाम नहीं छोड़ा है।
सफिया पीएम का कहना है कि शरिया कानून के तहत उत्तराधिकार संबंधी नियम मुस्लिम महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण हैं। उनका मानना है कि भारतीय संविधान के तहत उन्हें अपनी संपत्ति को स्वतंत्र रूप से हस्तांतरित करने का अधिकार मिलना चाहिए। उनका यह मामला समान नागरिक संहिता (UCC) पर भी बहस छेड़ सकता है। जिसमें सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू करने की बात कही जाती है।
सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने बताया कि याचिकाकर्ता की केवल एक बेटी है और वह अपनी पूरी संपत्ति उसे देना चाहती हैं। लेकिन शरिया कानून के तहत वह ऐसा नहीं कर सकतीं। उन्होंने यह भी कहा कि यह मामला केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे मुस्लिम समाज के लिए अहम हो सकता है।
अगर सुप्रीम कोर्ट सफिया पीएम की याचिका को स्वीकार करता है तो यह मुस्लिम उत्तराधिकार कानून में एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत हो सकता है। यह मामला धार्मिक कानून और भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों के बीच संतुलन की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकता है।