नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा कि आपराधिक मामले में अंतरिम आदेश के जरिए अभियुक्तों के खिलाफ कोई दंडात्मक कदम न उठाने का आदेश, रूटीन की तरह पारित नहीं किया जाना चाहिए।
अदालतों को अपराधों की छानबीन के चरण में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिए। न्यायपालिका और पुलिस एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों के बीच तालमेल जरूरी है। अपवाद या अतिसाधारण स्थिति में, जब लगे कि न्याय की हत्या हो रही तो ही अदालत को इस तरह का आदेश पारित करना चाहिए।
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने मंगलवार को कहा-
आमतौर पर, जब जांच जारी रहती है व तथ्य अस्पष्ट होते हैं और हाईकोर्ट के समक्ष पूरे सबूत या सामग्री उपलब्ध नहीं होते हैं तो अंतरिम आदेश पारित कर आरोपियों को गिरफ्तार न करने या दंडात्मक कार्रवाई न करने का निर्देश देने से बचना चाहिए।
कोर्ट ने आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-482 या संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत याचिका दायर कर मुकदमे को रद्द करने वाली याचिका का निपटारा कर दिया। शीर्ष अदालत ने कहा कि कोर्ट के पास उपलब्ध असाधारण व निहित शक्तियों का इस्तेमाल मनमाने तरीके से नहीं होना चाहिए।
पीठ ने यह फैसला मैसर्स निहारिका इन्फ्रास्ट्रक्चर प्राइवेट लिमिटेड द्वारा बॉम्बे हाईकोर्ट के एक अंतरिम आदेश के खिलाफ दायर याचिका पर दिया है। हाईकोर्ट ने इस मामले में आरोपी को गिरफ्तारी से संरक्षण के अलावा उसके खिलाफ किसी तरह की कठोर कार्रवाई करने पर भी रोक लगा दी थी।
पीठ ने कहा, अदालतें रहे सतर्क
धारा- 482 के तहत शक्ति बहुत व्यापक है, लेकिन इसका इस्तेमाल करने में अदालत को अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है। शीर्ष अदालत ने यह भी कहा है कि पुलिस के पास वैधानिक अधिकार है और कानून के तहत उसका कर्तव्य है कि वह संज्ञेय अपराध की छानबीन करें।
अदालत को ऐसे किसी छानबीन को शुरुआती दौर में विफल नहीं करना चाहिए। दुर्लभ मामलों में ही मुकदमे या शिकायत को निरस्त किया जाना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा है कि मुकदमे या शिकायत को निरस्त करने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट को एफआईआर में लगाए गए आरोपों की सत्यता पर नहीं जाना चाहिए।