आपराधिक मामलों में चार्जशीट दाखिल करने की प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाते हुए कहा है कि जांच एजेंसी की चार्जशीट में साक्ष्य की प्रकृति और मानक ऐसे सुदृढ़ और स्पष्ट हों कि साक्ष्य साबित होते ही अपराध स्थापित हो जाए। जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस S.V.N. भट्टी की बेंच ने विवादित संपत्ति पर कई पक्षों द्वारा दायर मामलों से जुड़ी अपीलों का निपटारा करते हुए कई अहम प्रक्रियागत बातें कही हैं।
उत्तर प्रदेश में दर्ज इन आपराधिक शिकायतों में धोखाधड़ी, विश्वासघात और आपराधिक साजिश के आरोप भी लगे थे। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले में FIR और मजिस्ट्रेट समन को रद्द करने से इनकार कर दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अंततः मृत व्यक्ति के बेटों द्वारा दायर अपील को अनुमति दे दी, जिनकी संपत्ति पर लड़ाई चल रही थी। अन्य अभियुक्तों को गिरफ्तारी पूर्व जमानत के लिए आवेदन करने की छूट भी दे दी गई। उनके लिए जारी समन आदेश को नए सिरे से फैसले के लिए मजिस्ट्रेट के पास भेज दिया गया।
हर आरोपी की भूमिका स्पष्ट हो
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस SVN भट्टी की बेंच ने अपने निर्णय में चार्जशीट दाखिल करने से संबंधित प्रक्रियागत स्पष्टता बताते हुए कहा कि चार्जशीट में सभी कॉलमों में स्पष्ट और पूर्ण प्रविष्टियां हों, ताकि कोर्ट सरलता से समझ सके कि किस आरोपी ने क्या अपराध किया है! अपराध में किसकी क्या, कितनी और कैसी भूमिका है। इसलिए अपराध में हर आरोपी की निभाई गई भूमिका का अलग से और स्पष्ट रूप से सारणीबद्ध उल्लेख करना उचित रहता है। जांच एजेंसी के सामने दिए गए आरोपी और गवाह के बयान और संबंधित दस्तावेज गवाहों की सूची के साथ संलग्न किए जाएं।
चार्जशीट ऐसी हो कि बिना प्रभाव…
जस्टिस खन्ना और जस्टिस भट्टी की बेंच ने एकराय निर्णय में कहा कि एक संपूर्ण चार्जशीट ऐसी होनी चाहिए कि ट्रायल आरोपी या अभियोजन पक्ष पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना आगे बढ़ सके। चार्जशीट में स्पष्ट किए जाने वाले सबूतों को प्रथम दृष्टया ही प्रकृति और मानक के जरिए स्पष्ट करना चाहिए कि अपराध कब, कहां, कैसे और किस सोच से हुआ। यानी अपराध सिद्ध हो जाए। चार्जशीट तब पूरी मानी जाती है, जब कोई आपराधिक मामला आगे किसी अन्य सबूत पर निर्भर नहीं करे। चार्जशीट के साथ रिकॉर्ड पर रखे गए साक्ष्य और सामग्री के आधार पर ही ट्रायल होना चाहिए। यह मानक अत्यधिक तकनीकी या मूर्खतापूर्ण नहीं है। इसका पालन कर ट्रायल में देरी और इसकी वजह से आरोपी के लंबे समय तक न्यायिक हिरासत में विचाराधीन कैदी के तौर पर जेल काटने, निर्दोष लोगों को उत्पीड़न से बचाने में भी निश्चित रूप से संतुलन बनाया जा सकता है।
आरोपी को मिलता है भ्रम का लाभ
कोर्ट ने निर्णय में कहा कि चार्जशीट में सभी कॉलमों में स्पष्ट और पूर्ण प्रविष्टियां होनी चाहिए, ताकि अदालतें स्पष्ट रूप से समझ सकें कि किस आरोपी ने कौन सा अपराध किया है! अदालत ने कहा है कि धारा 161 के तहत जांच एजेंसी के सामने बयान और संबंधित दस्तावेजों को गवाहों की सूची के साथ संलग्न किया जाना चाहिए। अपराध में आरोपियों की भूमिका का जिक्र आरोप पत्र में प्रत्येक आरोपी के लिए अलग से और सरल साफ तौर पर लिखा जाए। ताकि ट्रायल में कोई कंफ्यूजन या भ्रम की स्थिति ना रहे। कई बार यही भ्रम आरोपियों को सजा से बचा देता है। क्योंकि भ्रम का लाभ आरोपी को अपराधी सिद्ध करने में बाधक हो जाता है।