सुप्रीम कोर्ट ने 1998 में हुई हत्या के एक मामले में दोषी व्यक्ति को बरी करते हुए मंगलवार को कहा कि अदालत के बाहर अपराध स्वीकार करना (न्यायेतर स्वीकारोक्ति) एक कमजोर साक्ष्य है। हालांकि, इसका उपयोग ठोस सुबूत के साथ एक पुष्टिकारक साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली दोषी की अपील स्वीकार कर ली। हाई कोर्ट ने निचली अदालत के मई 1999 के उस आदेश को बरकरार रखा था, जिसमें उसे दोषी करार दिया गया था और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी। अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि अपीलकर्ता ने जून 1998 में भिवानी के एक सिनेमाघर में एक व्यक्ति की इस संदेह में हत्या कर दी थी कि उसका उसकी (आरोपित की) पत्नी के साथ अवैध संबंध था।
जस्टिस बीआर गवई और संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि अभियोजन का मामला प्राथमिक रूप से दो गवाहों के बयान पर आधारित है, जिनमें मृतक का भाई और एक अन्य व्यक्ति शामिल है। उन्होंने दावा किया था कि आरोपित ने उनके समक्ष इकबालिया जुर्म कुबूल किया था।
सुबूतों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि ये दोनों गवाह पूरी तरह से अविश्वसनीय गवाहों की श्रेणी में आते हैं और अपराध की पुष्टि के लिए उनके बयान पर भरोसा करना सही नहीं होगा। गवाहों में से एक द्वारा की गई कथित न्यायेतर स्वीकारोक्ति पर गौर करते हुए पीठ ने कहा कि बचाव पक्ष के एक अन्य गवाह का साक्ष्य इसका विरोधाभासी है।