वैवाहिक संबंधों को भविष्य की आशा पर बांधा जाता है। विवाह के समय विवाह के पक्षकार प्रसन्न मन से एक दूसरे से संबंध बांधते हैं। कुछ संबंध सदा के लिए बन जाते हैं तथा मृत्यु तक चलते हैं परंतु कुछ संबंध ऐसे होते हैं जो अधिक समय नहीं चल पाते और पति पत्नी के बीच तलाक की स्थिति जन्म ले लेती है। एक स्थिति ऐसी होती है जब विवाह का कोई एक पक्षकार तलाक के लिए सहमत होता है तथा दूसरा पक्षकार तलाक नहीं लेना चाहता है और एक स्थिति वह होती है जब तलाक के लिए विवाह के दोनों पक्षकार पति और पत्नी एकमत पर सहमत होते हैं।


ऐसी स्थिति में भारतीय कानून में क्या व्यवस्था की गई है? इससे संबंधित जानकारियों को  प्रस्तुत किया जा रहा है और साथ ही उस प्रक्रिया का भी उल्लेख किया जा रहा है जो ऐसी स्थिति में तलाक हेतु अपनाई जाती है। अनेक मामलों में यह देखा जाता है कि जब विवाह के दोनों पक्षकार तलाक हेतु सहमत होते हैं तब वह अज्ञानता में नोटरी या शपथ पत्र के माध्यम से तलाक कर लेते हैं। कुछ परिस्थितियां तो ऐसी देखी गई हैं कि सादे कागज पर लिखकर भी तलाक कर लेते हैं जबकि यह प्रक्रिया ठीक नहीं है।


इस हेतु कानून में अलग प्रक्रिया की गई है तथा तलाक के मामले में उसे अपनाया जाना अत्यंत आवश्यक है। इस संबंध में भारत के अनेक उच्च न्यायालयों द्वारा निर्णय भी दिए गए हैं तथा नोटरी पर तलाक को प्रतिबंधित किया गया है। शपथ पत्र के माध्यम से किसी प्रकार का कोई तलाक नहीं होता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 धारा-13 (बी):- हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-13(बी) पारस्परिक सहमति से संबंधित तलाक का उल्लेख करती है। 


ऐसी स्थिति होती है जब विवाह के दोनों पक्षकार पति और पत्नी तलाक के लिए एकमत पर सहमत होते हैं और न्यायालय के बाहर आपसी राजीनामा के माध्यम से तलाक कर लेते हैं अर्थात दोनों पक्षकार एक समझौता करते हैं जो न्यायालय के बाहर होता है। 


 जहां वे विवाह से उत्पन्न हुई संतानों के संदर्भ में तथा भरण पोषण के संदर्भ में अपने स्तर पर एक राजीनामा कर लेते हैं, यह निर्धारित कर दिया जाता है कि पति या पत्नी में से संतानों की अभिरक्षा किसके पास रहेगी तथा पति द्वारा पत्नी को एकमुश्त कितना भरण पोषण अपने भविष्य के जीवन हेतु दिया जाएगा। 


हिंदू विवाह अधिनियम की धारा-13 (बी) के अंतर्गत तलाक लेने हेतु यह आवश्यक है कि विवाह के पक्षकार अचानक ही उठकर न्यायालय पहुंचकर तलाक नहीं ले अपितु उसके पहले मध्यस्था तथा अपने संबंध को बचाए रखने के प्रयास करें। विवाह के दोनों ही पक्षकार पति और पत्नी के परिवारजन उनके विवाह को बचाने के पूर्व प्रयास करें तथा दोनों के बीच उत्पन्न हुए मतभेदों को समाप्त करने हेतु प्रयास करें।


 यदि ऐसे प्रयासों के पश्चात भी पति और पत्नी के बीच किसी प्रकार का संबंध स्थापित नहीं हो पाए तथा दोनों के बीच मतभेदों का अंत नहीं हो पाए उस स्थिति में हिंदू विवाह अधिनियम के अंतर्गत पारस्परिक सहमति से तलाक के संबंध में व्यवस्था दी गई है। यह ध्यान रहना चाहिए कि ऐसा तलाक दोनों पक्षकारों की सहमति से होता है। यदि इसमें किसी एक भी पक्षकार की सहमति नहीं है तब तलाक संपन्न नहीं होगा।


 कहां लगाना होता है आवेदन:-


हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13(बी) के अंतर्गत आवेदन उस जिला अदालत या कुटुंब न्यायालय में लगाया जा सकता है जिसके क्षेत्र अधिकार के अंतर्गत विवाह के पक्षकार निवास कर रहे हैं या फिर जिस न्यायालय के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत दोनों पक्षकारों का विवाह संपन्न हुआ था।


जैसे कि यदि कोई विवाह मुंबई में संपन्न हुआ था और अब पक्षकार बेंगलुरु में रह रहे हैं ऐसी स्थिति में आवेदन बेंगलुरु की जिला अदालत में लगाया जा सकता है यदि वहां कुटुंब न्यायालय की व्यवस्था है तो इस आवेदन को कुटुंब न्यायालय में लगाया जाएगा। 


ऐसे आवेदन को न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु किसी वकील की सहायता ली जा सकती है। वे ऐसे आवेदन को ड्राफ्ट कर प्रस्तुत करने के लिए अपनी एक निर्धारित फीस ले सकता है। यदि पक्षकार चाहे तो स्वयं भी ऐसा आवेदन न्यायालय में लगा सकते हैं परंतु यहां पर यह परामर्श दिया जाएगा कि पक्षकार किसी वकील के माध्यम से ही ऐसा आवेदन लगाए क्योंकि यह कार्य अत्यंत अनुभव और दक्षता से किया जाने वाला है। 


आवेदन कब लगाया जा सकता है:-


 हिंदू मैरिज एक्ट 1955 की धारा 13(बी) जो पारस्परिक सहमति से तलाक को उल्लेखित करती है इसका आवेदन लगाने के लिए एक समय अवधि भी है। पारस्परिक सहमति से तलाक का यह अर्थ नहीं है कि विवाह के अगले ही माह तलाक हेतु आवेदन लगा दिया जाए। 


कानून ने पक्षकारों को यह जिम्मेदारी सौंपी है कि वह विवाह को समाप्त करने के पूर्व उसे बनाए रखने का प्रयास करें तथा इतने आवेश में संबंधों का विच्छेद नहीं करें। इस हेतु ही इस धारा के अंतर्गत एक समय अवधि का निर्धारण किया गया है। ऐसा आवेदन विवाह से 1 वर्ष की अवधि के बाद ही लगाया जा सकता है। 


विवाह की दिनांक से 1 वर्ष की अवधि बीत जाने के पश्चात ऐसा आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। यदि इस अवधि के पूर्व ऐसा आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तब न्यायालय ऐसे आवेदन को खारिज कर देता है। उच्च न्यायालय की अनुमति के माध्यम से ऐसा आवेदन 1 वर्ष के पहले भी लगाया जा सकता है


 परंतु साधारणतः ऐसा आवेदन 1 वर्ष की अवधि के बाद ही लगाया जाता है, हर मामले में उच्च न्यायालय अनुमति नहीं देता है। पारस्परिक सहमति से तलाक पर किए गए आवेदन पर न्यायालय का विचार:- जब कभी किसी विवाह के पक्षकार पारस्परिक सहमति से तलाक हेतु आवेदन हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (बी) के अंतर्गत प्रस्तुत करते हैं तब न्यायालय ऐसे आवेदन पर विचार करता है और उसे 6 महीने तक विचार करने हेतु समय अवधि दी गई है।


 न्यायालय के विचार का अर्थ यह होता है कि न्यायालय भी पक्षकारों को आपस में मिलाने हेतु प्रयास करता है। न्यायालय के पीठासीन अधिकारी विवाह के पक्षकारों को बैठाकर उनके आपसी मतभेदों को समाप्त करने के प्रयास करते हैं तथा उनके यह प्रयास होते हैं कि उन दोनों के संबंध को बचाया जा सके।


 यदि 6 माह की अवधि में भी विवाह के पक्षकारों के मध्य किसी प्रकार का समझौता नहीं होता है तथा दोनों तलाक के मत पर सहमत होते हैं तब न्यायालय पक्षकारों को तलाक की डिक्री प्रदान कर देता है।


 पारस्परिक सहमति से तलाक हेतु आवेदन पर खर्च:- 


अनेक की स्थिति ऐसी होती है जब विवाह के प्रकार इस प्रकार से पारस्परिक सहमति से तलाक लेते समय खर्च के संबंध में विचार करते हैं। यहां इस धारा के अंतर्गत तलाक लेने पर अधिक खर्च नहीं होता है केवल एक अधिवक्ता की फीस पक्षकारों को अदा करनी होती है जो उनके द्वारा अपनी सहायता हेतु नियुक्त किया जाता है। 


कोई भी वकील कितनी फीस लेगा यह उसके अपने मत पर निर्भर करता है। साधारणतः ₹10000 तक में वकीलों द्वारा इस प्रकार की तलाक संपन्न करा दी जाती है। कुछ नॉमिनल कोर्ट फीस होती है जिसके स्टांप ऐसे आवेदन पर लगाए जाते हैं वह पक्षकारों को अदा करनी होती है।


 डिक्री प्रदान किया जाना:-


 यहां यह ध्यान देने योग्य बात है की विवाह का विघटन अर्थात तलाक किसी भी प्रकार से न्यायालय की दी हुई डिग्री के माध्यम से होता है। पक्षकार आपसी सहमति से तलाक करते हैं तब भी न्यायालय द्वारा डिक्री प्रदान की जाती है तथा यह घोषणा की जाती है कि विवाह के पक्षकारों के मध्य वैधानिक रूप से तलाक संपन्न हो गया है तथा अब दोनों के मध्य किसी प्रकार के अधिकार और दायित्व विशेष नहीं रहे हैं।


 ऐसी डिक्री जारी होने के बाद ही पक्षकारों के मध्य वैधानिक रूप से तलाक होता है। इसके सिवाय कोई व्यवस्था किसी भी कानून में उपलब्ध नहीं है।


 मुस्लिम तलाक के मामले में:-


आज के समय में मुस्लिम तलाक के मामले में भी ऐसी ही व्यवस्था लागू है। यदि विवाह के पक्षकार मुस्लिम है वह मुस्लिम रीति रिवाजों से विवाह संपन्न किया गया है तब पक्षकार एकमत पर तलाक हेतु सहमत हैं तो वह भी नोटरी के माध्यम से तलाक नहीं कर सकते हैं या फिर शपथ पत्र देकर तलाक नहीं कर सकते हैं अपितु उन लोगों को खुला या मुबारत करना होता है। 


खुला और मुबारत हेतु भी उन्हें काज़ी की अदालत में प्रस्तुत होकर एक दूसरे की सहमति देकर तलाक लेनी होती है। यदि विवाह के पक्षकार न्यायालय के माध्यम से तलाक लेना चाहते हैं तब मुस्लिम विवाह का विघटन अधिनियम, 1938 के अंतर्गत तलाक लेते हैं। 


वहां इस अधिनियम के अंतर्गत आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और ऐसे आवेदन पर न्यायालय विचार करके उन्हें भी हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 (बी) के समान ही डिक्री प्रदान करता है।


 यहां पर मुस्लिम विवाह के मामले में काज़ी की अदालत से भी तलाक हो जाता है अर्थात काज़ी के समक्ष दोनों पक्षकार उपस्थित होते हैं और इस प्रकार के तलाकनामे पर हस्ताक्षर कर देते हैं परंतु यहां भी न्यायालय की डिक्री के माध्यम से तलाक लेना ही सही होगा क्योंकि उस तलाक पर भविष्य में किसी प्रकार का कोई आक्षेप नहीं आता है।


यदि ऐसा आक्षेप आता भी है तो खारिज कर दिया जाता है क्योंकि ऐसा तलाक विधि द्वारा स्थापित न्यायालय द्वारा दिया जाता है और न्यायालय सर्वप्रथम है। न्यायालय के पीठासीन अधिकारी द्वारा यदि कोई आदेश जारी किया गया है तो उसे मान्यता अधिक होती है।

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