बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर

Edited   by
ABHINAV   SONI 


  • इंग्लैंड में 1916 में ही लॉ में   लिया   नामांकन 
  • हैदराबाद के मुख्य न्यायधीश बनने का ऑफर ठुकराया 
  • दोस्त से उधार लेकर वकालत   की  
  • लेबर  कोर्ट से   शुरू  की वकालत  


आधुनिक भारतीय विचारक और युग निर्माता बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर एक प्रमुख नाम हैं। बाबा साहब एक अच्छे  अर्थशास्त्री, कानूनविद, राजनेता तथा समाज सुधारक थे। आज उनका   131 वां जन्मदिवस हैं। उनका व्यक्तित्व व् उनका संदेश “शिक्षित बनो, संगठित बनो, संघर्ष करो” आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बना हुआ है। 


भारत रत्न से सम्मानित डॉ. बी.आर. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल,1891 में महू (जिसका नाम अब डॉ. अम्बेडकर नगर कर दिया है) म.प्र., भारत में हुआ था। 14 अप्रैल को उनका जन्मदिवस अम्बेडकर जयंती के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता है।


बचपन में वे भिवा, भीम, भीमराव के नाम से जाने जाते थे लेकिन आज हम सब उन्हें बड़े आदर के साथ बाबा साहेब अम्बेडकर के नाम से पुकारते हैं। वे बचपन से ही प्रतिभाशाली छात्र थे और उन्होंने कोलंबिया विश्वविद्यालय तथा लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स दोनों ही विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र में डॉक्टोरेट की उपाधियां हासिल की। अर्थशास्त्र के साथ विधि एवं राजनीति विज्ञान में भी उन्होंने शोध कार्य किया। प्रारंभ में वे अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रहे, वकालत भी की, लेकिन बाद में उन्होंने राजनैतिक गतिविधियों में सम्मिलित होकर भारत की वास्तविक स्वतंत्रता, सामाजिक स्वतंत्रता तथा आर्थिक स्वतंत्रता के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।



बाबा साहब के जीवन के कई पहलुओं से आप परिचित होंगे लेकिन आज हम आपको उनकी वकालत से जुड़े कुछ तथ्यों से अवगत कराएंगे।  कुछ घटनाएं, कुछ चीजें, कुछ पल या कुछ यादें किसी खास इंसान से इस तरह जुड़ जाती हैं कि उनकी एकमात्र पहचान बनकर रह जाती है या बना दी जाती हैं। 



डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की समान्यतया आम लोगों में सिर्फ दो रूप में पहचान बन गई हैः एक तो भारत के संविधान निर्माता के रूप में जहां उन्हें ड्राफ्टिंग कमिटी का अध्यक्ष बनाया गया था और दूसरा एससी/एसटी के लिए आरक्षण लागू करवाने वाले योद्धा के रूप में। लेकिन इसके इतर भी कई  ऐसे मामले हैं जिसमें बड़े-बड़े योगदान डॉक्टर भीमराव अंबेडकर  ने दिए है। जैसे उनका  20वीं सदी के दुनिया में  सबसे ज्यादा पढ़ा -लिखा  राजनेता होना।  और एक कुशल कानूनविद होना हालाँकि  आंबेडकर वकालत में जो सोचकर आए थे वह पूरी तरह नहीं कर पाए क्योंकि जातीय, सामाजिक और आर्थिक दुराग्रह उनके खिलाफ था। 


 इतिहासकार रोडित डे ने अपने लेख ‘लायरिंग एज पॉलिटिक्सः द लीगल प्रैक्टिस ऑफ डॉक्टर आंबेडकर, बार एट लॉ’ में वकील आंबेडकर के बारे में विस्तार से लिखा है। जिसके कुछ अंश प्रस्तुत हैं।  रोहित डे ने इसके लिए अखबारों में छपी खबरों की सहायता से उन मुकदमों के बारे में जानने की कोशिश की है। साथ ही, उन्होंने यह भी बताया कि, कुछ महत्वपूर्ण मुकदमों में बहस किस तरह से हुई! । 

  • डॉक्टर आंबेडकर ने इंग्लैंड में 1916 में ही लॉ में नामांकन ले लिया था लेकिन उनकी वकालत का कोर्स तब तक पूरा नहीं हुआ था क्योंकि बड़ौदा महाराज से मिले वजीफे की मियाद पूरी हो गयी थी, भारत लौटने के बाद आंबेडकर को सिडेनहम कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक की नौकरी भी मिल गई।  चूंकि उनका मन अभी भी वकालत में लगा हुआ था इसलिए वहां उन्होंने नौकरी के अलावा निजी रूप से पढ़ाना शुरू किया जिससे कि पैसा बचाकर अपनी अधूरी पड़ी डिग्री को पूरा कर सकें।   आंबेडकर फिर से इंग्लैंड पहुंचे और 1923 में लॉ की डिग्री लेकर भारत लौटे।  उन्होंने किसी कॉलेज-विश्वविद्यालय में पढ़ाने की बजाय अपने दोस्त से उधार लेकर वकालत करने का फैसला किया।   उसी साल उन्हें डिस्ट्रिक्ट जज बनने का ऑफर मिला जिसमें उनसे यह भी कहा गया था कि अगले तीन वर्षों में उन्हें बंबई हाई कोर्ट में जज बना दिया जाएगा।  कुछ दिनों के बाद हैदराबाद के निजाम ने उन्हें हैदराबाद के मुख्य न्यायधीश बनने का ऑफर भी दिया लेकिन आंबेडकर ने इन सभी प्रस्तावों को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि यह उनके निजी स्वतंत्रता को खत्म कर देगा। 


हम इस बात से भी आंबेडकर की प्रतिबद्धता का आकलन कर सकते हैं कि,  झुग्गी में रहते हुए भी उन्होंने ,  जिला जज की नौकरी करने से मना कर दिया और कॉरपोरेट घरानों की वकालत करने को भी उन्होंने  प्राथमिकता नहीं दी बल्कि मजदूरों के (लेबर) एडवोकेट के रूप में अपने काम की शुरुआत की।  


 एक वकील के रूप में उन्होंने मूलतः चार तरह के मामलों को प्राथमिकता दी, 


  • पहला-राजनीतिक,
  •  दूसरा- समुदायों के बीच के आंतरिक मामले,
  • तीसरा- मजदूरों-गरीबों से जुड़े हुए मामले 
  •  चौथा- संविधान के मूल भावना से जुड़े मामले।    

  • लेकिन ऐसा नहीं है कि इसके अलावा वह और मामलों में वकालत नहीं करते थे, जैसा कि उन्होंने 1953 में राज्य सभा में कहा भी था, ‘हम वकीलों को तरह-तरह के मामलों में बचाव करना पड़ता है’ लेकिन उनकी प्राथमिकता में उपर्युक्त मामले सबसे उपर थे । 


  • स्वतंत्रता आंदोलन से पहले के कांग्रेस नेतृत्व को देखने से पता चलता है कि, उसके अधिकांश बड़े नेता वकालत के पेशा से जुड़े हुए थे और उनकी पृष्ठभूमि, खासकर आर्थिक काफी सुदृढ़ थी. वर्तमान समय की तरह ही उस समय भी वकालत में या तो अकूत कमाई होती थी या फिर लंबे समय तक संधर्ष करते रहना पड़ता था।  मोतीलाल नेहरू, मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्ना, दादाभाई नौरोजी, बदरूद्दीन तैयबजी, फिरोजशाह मेहता, एन जी चन्द्रावरकर, चित्तरंजन दास, सैय्यद हसन इमाम, मियां मोहम्मद शफी जैसे लोग उस समय के बड़े वकीलों में शुमार किए जाते थे।  गांधी और जिन्ना दोनों बनिक समाज से आते थे और दोनों के परिवार वालों ने अपने पैसे से इंग्लैंड भेजकर बैरिस्टर बनाया था। जब आंबेडकर इस पेशे से जुड़ रहे थे तो उन्हें पता था कि, यह पेशा उन लोगों के लिए मुफीद है जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि रही है । 


  • आंबेडकर की प्राथमिकता में मौलिक अधिकारों की रक्षा भी उतना ही महत्वपूर्ण थी। इस तरह का सबसे महत्वपूर्ण मामला फिलिप स्प्राट का था जो इंगलैंड के मूल निवासी थे और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। उन्होंने ‘इंडिया और चाइना’ नाम से एक पर्चा लिखा था जिसके चलते उसे ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर लिया. कोर्ट में वह बरी हुए।  इसी तरह मशहूर ट्रेड यूनियन और कम्युनिस्ट लीडर बीटी रणदिवे के राजद्रोह के मामले में डॉ. आंबेडकर ही वकालत कर रहे थे जिसमें रणविदे को भी बरी किया गया. ट्रेड यूनियन से जुड़े अनेकों मामले में, जिसमें देश के प्रमुख कम्युनिस्ट नेता वीबी कार्णिक, मणिबेन कारा, अब्दुल मजीद, रणविदे जैसे लोग शामिल थे, का सफलतापूर्वक बचाव किया था। डॉक्टर आंबेडकर इस बात को बखूबी जानते थे कि समाज के सबसे गरीब तबकों का ही इंसान होने के अधिकारों का सबसे अधिक उल्लंधन होता है, इसलिए ह्यूमन राइट डिफेंडर के रूप में उन्होंने तरह-तरह के मुकदमों में वकालत की। 



आंबेडकर की प्रतिभा जो भी रही हो, इसके बावजूद जातीय प्रताड़ना को सबसे अधिक उन्होंने ही झेला। चूंकि वे मानव अधिकार व मानवीय गरिमा से वाकिफ थे, इसलिए इसका प्रतिरोध भी सबसे अधिक उन्होंने ही किया. वह अभिव्यक्ति की आजादी (फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन) के बारे में भी जानते थे और यह भी जानते थे किन लोगों व जगहों पर इसका बेजा इस्तेमाल हो सकता है, इसलिए उन्होंने इसके पक्ष में खड़ा रहने/होने को प्राथमिकता दी। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण मराठी में लिखी एक पुस्तक के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दर्ज कराना था। 


यह तो तय है कि, आंबेडकर वकालत में जो सोचकर आए थे वह पूरी तरह नहीं कर पाए क्योंकि जातीय, सामाजिक और आर्थिक दुराग्रह उनके खिलाफ था, लेकिन अगर आंबेडकर उस समय वकालत में नहीं आए होते या किसी कॉलेज में अर्थशास्त्र पढ़ा रहे होते तो भारतीय संविधान का वही स्वरूप नहीं होता जो आज दिख रहा है, क्योंकि उन्हें संविधान लिखने वाली  कमिटी का अध्यक्ष भी इसलिए बनाया गया था क्योंकि वह पेशेवर वकील भी थे, न कि सिर्फ राजनेता!

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