इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मनमाने ढंग से स्टाम्प ड्यूटी रिफंड रोकने का आदेश खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा कि तकनीकी अड़चनें वैध अधिकार छीन नहीं सकतीं।

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि सरकार संशोधित नियमों का इस्तेमाल करके किसी व्यक्ति के वैध वित्तीय अधिकार को समाप्त नहीं कर सकती। यह आदेश न्यायमूर्ति शेखर बी सराफ और न्यायमूर्ति विपिन चंद्र दीक्षित की खंडपीठ ने सीमा पडालिया व अन्य बनाम की याचिका पर अधिवक्ता राहुल सहाय एवं सौमित्र आनंद और राज्य सरकार के वकील को सुनकर दिया है। साथ ही सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए मामले में पुनर्विचार का निर्देश दिया है।

अधिवक्ता द्वय ने कोर्ट को बताया कि याचियों ने वर्ष 2015 में 4,37,000 रुपये मूल्य के स्टाम्प पेपर खरीदे थे। ये स्टाम्प पेपर नोएडा और मेसर्स एजीसी रियल्टी प्राइवेट लिमिटेड के साथ सेक्टर 121 नोएडा में होम 121 आवासीय इकाई की बिक्री और उप-पट्टा समझौते के लिए खरीदे गए थे।

इस प्रोजेक्ट में फ्लैटों की बिक्री और हस्तांतरण पर प्रतिबंध लगाने के कारण यह समझौता पंजीकृत नहीं हो सका। इसके बाद याचियों ने नवंबर 2023 में अपना आवंटन छोड़ दिया और 27 अप्रैल 2024 को स्टाम्प ड्यूटी रिफंड के लिए आवेदन किया, लेकिन राज्य सरकार ने उत्तर प्रदेश स्टाम्प (5वां संशोधन) नियम, 2021 के नियम 218 का हवाला देते हुए उनकी मांग नामंजूर कर दी। राज्य सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि 2021 के संशोधित नियमों के लागू होने के बाद याचियों का रिफंड आवेदन सीमा से बाहर हो चुका था क्योंकि संशोधन नियमों से आठ साल की सीमा अवधि तय की गई है।

हाईकोर्ट ने सरकार की इस दलील को खारिज करते हुए हर्षित हरीश जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि कोई भी संशोधन पूर्वव्यापी लागू कर किसी व्यक्ति के अर्जित अधिकार को समाप्त नहीं कर सकता। कोर्ट ने कहा कि याचियों ने 2015 में स्टाम्प पेपर खरीदे थे, जो 2021 के संशोधन से पहले का मामला है।

ऐसे में उनका रिफंड का अधिकार पुराने नियमों के तहत सुरक्षित था इसलिए संशोधन नियमों को पूर्वव्यापी रूप से लागू नहीं किया जा सकता। राज्य सरकार ने केवल तकनीकी आधारों पर रिफंड खारिज कर दिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि सरकार अनुचित लाभ नहीं उठा सकती।

इसी के साथ कोर्ट ने राज्य सरकार के आदेश को रद्द करते हुए निर्देश दिया कि वे याचियों के रिफंड आवेदन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आधार पर पुनर्विचार कर तीन महीने के भीतर उचित निर्णय लिया जाए।

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