सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को एससी/एसटी एक्ट के तहत दर्ज एक व्यक्ति के खिलाफ मामला खारिज करते हुए कहा कि कथित घटना सार्वजनिक तौर पर नहीं हुई। मामले की सुनवाई न्यायमूर्ति बीआर गवई और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(आर) के अनुसार, किसी अपराध के होने के लिए यह स्थापित होना जरूरी है कि आरोपी ने सार्वजनिक तौर पर किसी जगह पर एससी या एसटी के किसी सदस्य को अपमानित करने के इरादे से जानबूझकर अपमानित या धमकाया हो।

शीर्ष अदालत ने एफआईआर का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि कथित घटना शिकायतकर्ता के चैंबर के चारों कोनों में हुई और घटना के बाद उसके अन्य सहयोगी वहां पहुंचे। शीर्ष अदालत ने मद्रास उच्च न्यायालय के फरवरी 2024 के आदेश को चुनौती देने वाले एक व्यक्ति की तरफ से दायर अपील पर अपना फैसला सुनाया। उच्च न्यायालय ने तिरुचिरापल्ली की एक निचली अदालत के समक्ष कार्यवाही को रद्द करने की उसकी याचिका को खारिज कर दिया। अभियोजन पक्ष ने आरोप लगाया कि सितंबर 2021 में व्यक्ति ने भूमि के ‘पट्टे’ में नाम शामिल करने के संबंध में अपने पिता के नाम पर दायर याचिका की स्थिति के बारे में पूछताछ करने के लिए शिकायतकर्ता, एक राजस्व निरीक्षक से संपर्क किया। कथित झगड़े के बाद, अपीलकर्ता ने कथित तौर पर शिकायतकर्ता के कार्यालय में उस पर जातिगत गालियां दीं।

शिकायतकर्ता ने शिकायत दर्ज कराई और कथित अपराधों के लिए उस व्यक्ति के खिलाफ मामला दर्ज किया गया, जिसमें एससी-एसटी अधिनियम की धारा 3(1)(आर) और 3(1)(एस) के तहत मामला दर्ज किया गया। वहीं मामले की जांच के बाद, तिरुचिरापल्ली की एक ट्रायल कोर्ट में आरोप पत्र दाखिल किया गया। आपराधिक कार्यवाही शुरू होने से व्यथित होकर, व्यक्ति ने इसे रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय का रुख किया। उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि यदि उस पर मुकदमा चलाया जाता है तो कोई पक्षपात नहीं होगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, ‘इस प्रकार यह देखा जा सकता है कि ‘सार्वजनिक दृश्य के भीतर’ एक स्थान होने के लिए, वह स्थान खुला होना चाहिए जहां आम लोग आरोपी की तरफ से पीड़ित से की गई बातों को देख या सुन सकें’। यदि कथित अपराध दीवार के चारों कोनों के भीतर हुआ था जहां आम लोग मौजूद नहीं थे, तो यह नहीं कहा जा सकता कि यह सार्वजनिक दृश्य के भीतर हुआ था। पीठ ने कहा कि एफआईआर में लगाए गए आरोप, चाहे वे प्रथम दृष्टया ही क्यों न हों और पूरी तरह से स्वीकार किए गए हों, अधिनियम की धारा 3(1)(आर) या धारा 3(1)(एस) के तहत प्रथम दृष्टया अपराध नहीं बनते। अपील स्वीकार करते हुए पीठ ने उच्च न्यायालय के आदेश को खारिज कर दिया और संबंधित कार्यवाही के अलावा आरोपपत्र को भी रद्द कर दिया।

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