दिल्ली हाईकोर्ट ने आर्थिक रूप से संपन्न एक परिवार से ताल्लुक रखने वाले 10 साल के बच्चे को अपनी गुजर-बसर के लिए अदालत का सहारा लेने पर चिंता जाहिर की है। कोर्ट ने कहा कि बच्चा उसी हैसियत से जीवन-यापन का हकदार है, जिस रुतबे से पिता रहता है। पिता जो प्रतिमाह चार लाख रुपये कमाता है। उसे अपने बेटे की परवरिश के लिए महज 40 हजार रुपये महीना देने में आपत्ति है।
जस्टिस नवीन चावला की बेंच ने नाबालिग की याचिका को चुनौती देने वाले पिता को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि खुद शानो-शौकत का जीवन जी रहे हो और नाबालिग की शिक्षा एवं अन्य खर्च उठाने में दिक्कत हो रही है।
बेंच ने कहा कि यह बड़ी विड़बना है कि बच्चा एक ऐसे परिवार में जन्मा है, जहां माता-पिता दोनों ही आर्थिक रूप से मजबूत स्थिति में हैं, लेकिन उन्हें आपसी विवाद से ही फुरसत नहीं है। दोनों चल-अचल संपति को लेकर झगड़ रहे हैं। बेटे को देने के लिए पिता के पास पैसा नहीं है। कोर्ट ने कहा कि उसके बालिग होने तक उसकी परवरिश की तमाम जिम्मेदारी पिता पर बनती है।
दिल्ली हाईकोर्ट उस आदेश को बरकरार रखा है, जिसमें फैमिली ने पिता के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिए थे। हाईकोर्ट ने पिता को आदेश दिया कि वह दो सप्ताह के भीतर अपने दस साल के बेटे को अब तक 40 हजार रुपये प्रति माह के हिसाब से बकाया रकम का भुगतान करे, अन्यथा उसके खिलाफ जारी गिरफ्तारी वारंट को अमल में लाया जाएगा।
अदालत में गुजाराभत्ते के लिए याचिका दायर करने वाला राहुल (बदला हुआ नाम) महज नौ महीने की उम्र से मां के साथ रह रहा है। बच्चे के माता-पिता का विवाह वर्ष 2006 में हुआ था। जून 2014 में बच्चे का जन्म हुआ था। मार्च 2015 में विवाद होने के बाद मां उसे लेकर अलग रहने लगी थी। वहीं, पिता का कहना था कि उसकी पत्नी बच्चे को संपति पाने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल कर रही है। लेकिन, हाईकोर्ट ने कहा कि पिता से गुजर-बसर मांगना उसका सामाजिक और कानूनी हक है। इससे उसे वंचित नहीं किया जा सकता।